जानिए बूआ-भतीजे की जोड़ी ने कैसे योगी- केशव का किला किया धवस्त और 2019 के बदलते सियासी समीकरण

न्यू दिल्ली,न्यूज़ नॉलेज मास्टर(NKM)-उपचुनाव में राज्य के सीएम योगी आदित्यनाथ और डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य के गढ़ में घुसकर बूआ-भतीजे की जोड़ी ने जंग जीत ली…मायावती और अखिलेश की जोड़ी द्वारा मिलकर बीजेपी के किले को धवस्त करने का कमाल करने के बाद लाख टके का सवाल यह है कि क्या ये गठबंधन 2019 के आम चुनाव में भी कायम रहेगा ? सियासी समीकरणों के नित बदलते इस खेल ने बीजेपी की चिंता बढ़ा दी है..सपा बसपा जहां खुशी का जश्न मना रही है वहीं बीजेपी आत्म-मंथन में
इस सवाल का जवाब ढूंढने में लगी है कि आखिर लोकसभा और गतवर्ष विधानसभा चुनाव में चमत्कार करने के बाद ऐसी मात क्यों ? यह चिंता न सिर्फ योगी की है बल्कि उपचुनाव के इस परिणाम ने मोदी और अमित शाह को भी अपनी रणनीति पर नये सिरे से विचार करने के लिए बाध्य कर दिया है । इस उपचुनाव को 2019 में होने वाले आमचुनाव का सेमिफाईनल माना जा रहा था। अभी बीजेपी के पूर्वोतर की जीत के जश्न का जोश ठंडा भी न हुआ था कि देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री और उपमंख्यमंत्री का अपनी ही सीटों पर बुरी तरह हार जाना बेहद शर्मनाक माना जा रहा है।
मोदी सरकार के लिए यह चुनाव परिणाम खतरे की घंटी है क्योंकि अखिलेश मायावती के उपचुनाव में प्रयोग किए गये फार्मूले को अगर लोकसभा चुनाव में भी अजमाया गया तो बीजेपी की ज़मीन खिसक सकती है। यूपी बिहार से भाजपा व उसके सहयोगी दलों ने 2014 में 104 सीटों पर जीत दर्ज की थी। अकेले भाजपा ने 282 में से 93 सीटों पर जीत दर्ज की थी। लेकिन गोरखपुर, फूलपुर और अररिया में पार्टी की शर्मनाक हार ने पार्टी की लोकप्रियता पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है।

कहां हुई चूक यां फिर मारा ऑवर कॉनफिडेंस ने
किसी भी नेता या दल में जीत को लेकर आत्मविश्वास होना तो ठीक है लेकिन ओवर-कोनफिडेंस का होना ठीक नही है। वहीं नेताओं के भाषण या वक्तव्य में अगर मतदाता को अहंकार दिखाई दे तो भी मतदाताओं पर उसका नकारात्मक असर पड़ता है। आमूमन रेली में दिए भाषणों या फिर टीवी डिबेटस में बीजेपी के नेताओं और प्रवक्ताओं में कहीं न कहीं अहंम दिखाई देने लगा है
जातिगत सोशल इन्जीनियरिंग का प्रभाव
उत्तर-प्रदेश और बिहार में कास्ट फेक्टर का चुनाव परिणाम पर पर क्या प्रभाव है यह बात किसी से छिपी नहीं है। माया अखिलेश के एक साथ आ जाने से इस सियासी अवसरवादी गठबंधन ने बीजेपी को करारा झटका दिया है..इन सीटों पर ओबीसी,यादव और अल्पसंख्यकों के वोट ने बीजेपी की नैया डूबो दी..इस उपचुनाव के नतीजों पर नजर डालें तो भाजपा दोनों ही राज्यों में जातिगत समीकरण को बेहतर तरीके से अपने पक्ष में साधने में पुरी तरह से विफल रही है, जिसे उसने 2014 के लोकसभा चूनाव में काफी बेहतर तरीके से साधा था। दोनों ही प्रदेश में गैर यादव मतदाताओं ने भाजपा के पक्ष में अपना समर्थन दिया था, जिसके चलते पार्टी को इतनी बड़ी जीत मिली थी। 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत का सबसे बड़ा मंत्र यह था कि पार्टी ने एक तिहाई जगहों पर भाजपा ने ओबीसी जाति से गैर यादवों को टिकट दिया था। 2015 में जिस तरह से भाजपा को नीतीश लालू के गठबंधन की वजह से हार का सामना करना पड़ा उसके बाद एक बार फिर से गैर यादव मतदाता को रिझाने के लिए पार्टी को नीतीश कुमार के साथ 2017 में गठबंधन करना पड़ा। यह यह पूरा समीकरण इस उपचुनाव में तीनों सीटों पर पूरी तरह से विफल नजर आया।
केन्द्र में सरकार बनाने का रास्ता यूपी और बिहार से होकर ही दिल्ली पुहंचता है ऐसे में बीजेपी को अपनी रणनीति पर गंभीरता से गौर करने जी ज़रुरत है वहीं बीजेपी का एनडीए से छिटकने को छटपटाहते हुए अपने सहयोगी दलों को भी संभालना ज़रुरी है।

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