विरोध है तो यह भी देखे की क्या विपक्ष अपनी भूमिका निभा पा रहा : शुभ्रा रंजन
संविधान ने संसद को अध्यादेश लाने का अधिकार दिया है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (एनसीटी) केंद्र शासित प्रदेश है। लिहाजा संवैधानिक तौर पर एनसीटी केंद्र के अधीन है। दुनिया में कई संघीय देश की राजधानी में भी दिल्ली जैसा प्रावधान है। ऐसा इसलिए भी है कि दूतावास होने की वजह से दिल्ली ग्लोबल सिक्योरिटी के लिहाज शासित होती है। कॉमनवेल्थ गेम, जी-20 जैसे सम्मेलन आयोजित होते है।
शुभ्रा रंजन ने कहा कि भारत एक जीवंत प्रजातंत्र है। इस प्रजातंत्र के लिए वाद-विवाद एक अनिवार्य शर्त है। इसलिए कानून का निर्माण विवेक और विमर्श पर आधारित होता है। भले पूरा मामला राजनीतिक एजेंडे पर है, लेकिन यह देखना होगा कि क्या भारत का संवैधानिक ढांचा न्यायपालिका को संसद के विवेकाधिकार में हस्तक्षेप की अनुमति देता है। विशेषकर अनु-122 को देखते हुए। संविधान में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार और कर्तव्य स्पष्ट तौर पर परिभाषित है। विधायिका का काम कानून बनाना है तो न्यायपालिका (सुप्रीम कोर्ट) का काम संविधान के अनुसार कानूनों की व्याख्या करना। दोनों को एक-दूसरे के काम में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं दिया गया है। हमारे देश की व्यवस्था न तो इंग्लैंड सरीखी है और ना ही संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह। इंग्लैंड में संसद सर्वोच्च है वहीं अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट। जबकि भारत में तीनों अपने-अपने दायरे में सर्वोच्चता रखते हैं। लोकतंत्र की मूल भावना भी यही कहती है। हालांकि जब दायरे से बाहर जाकर काम होता है तो समस्याएं उत्पन्न होती है।
मुद्दा यह भी है कि कार्यपालिका कभी भी अध्यादेश लाकर व दोनों सदनों से इसे पारित करा कानून बना सकती है। यहां प्रश्न यह भी है कि प्रशासनिक मामले में न्यायपालिका का हस्तक्षेप कितना उचित है। संविधान कहता है कि जहां कानून स्पष्ट है वहां किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं हो सकता। केंद्र शासित प्रदेश होने की वजह से विशेष प्रावधान दिल्ली के लिए है। सुप्रीम कोर्ट संसद के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। जहां तक विरोध की बात है तो यह देखना होगा कि क्या विपक्ष अपनी भूमिका सार्थक रूप से निभा पा रहा है या नहीं। राजनीति है तो राजनीतिक एजेंडा भी रहेगा ही। डॉ. अंबेडकर ने भी कहा था कि कानून का पालन नहीं करेंगे तो व्यवस्था चरमरा जाएगी। इसलिए संवैधानिक पहलू को देखना जरूरी है। कुल मिलाकर संवैधानिक संस्थाओं में संतुलन व मूल सिद्धांत ही हमें वह आधार प्रदान करते हैं जिनके द्वारा इस मुद्दे के विभिन्न पक्षों का मूल्यांकन किया जा सकता है। देखने की आवश्यकता है कि नौकरशाही की तटस्थता के सिद्धांत को किस हद तक चुनौती मिलती है। कहीं यह भारत में एक बार फिर प्रतिबद्ध नौकरशाही की बहस को जन्म ना दे दे।
राजनीतिक विश्लेषक और कानून की जानकर हैं शुभ्रा रंजन